दिमाग ही दुश्मन है
“यू. जी. कृष्णमूर्ति मेरे कथा नायक हैं। मेरा यू. जी. से मिलने आना मौत के अनुभव का मेरा अपना तरीका है।”
-महेश भट्ट (पुस्तक “अब...मैं कौन हूँ” से)
इस पुस्तक में यू.जी. कृष्णमूर्ति के साथ की गई बातचीत के अंश हैं, जो किसी भी बात को बिलकुल उसी तरह कहते हैं, जिस तरह कही जानी चाहिए। निश्चित रूप से यह पुस्तक उन लोगों के लिए नहीं है, जो इसे पढ़कर शांति, सत्य या ब्रह्म की प्राप्ति करना चाहते हैं। लेकिन यह उनके लिए अवश्य है, जो अपने दिमाग की चालबाजियों को समझना चाहते हैं और स्वयं को इस जाल में फँसने से बचाना चाहते हैं। यू.जी. के साथ किया गया यह वार्तालाप एक ऐसी यथार्थवादी और मौलिक दृष्टि प्रदान करता है, जिसकी ओर कभी भी हमारा ध्यान सपने में भी नहीं जाता। यू.जी. की बातें और उनके विचार हमें सहलाते नहीं, बल्कि थप्पड़ मारते हैं। सहलाने और थपथपाने में उनका तनिक भी विश्वास नहीं है। जो व्यक्ति अपने आपके प्रति निर्मम हो सकता है, वही यू.जी. के इन विचारों से लाभ उठाकर अपने जीवन को एक नई दिशा प्रदान कर सकता है।सचमुच यह जानना बहुत दुखद लगता है कि हम अपने उस दिमाग को ही अपना दुश्मन मान रहे हैं, जिसे हम अब तक अपना सबसे बड़ा मित्र समझते थे। लेकिन सच्चाई क्या है, इसे इस पुस्तक को पढने के बाद ही जाना जा सकेगा।
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